Thursday, July 16, 2009

पंजाब के वो दिन

हमारी जिंदगी के कुछ वषॆ पंजाब में बीते। जैसा कि अमूमन होता है, नई जगह में थोड़ी दिक्कतें आती हैं। उसमें भी अगर भाषा और संस्कृति का फकॆ हो तो दिक्कत थोड़ी बड़ी हो जाती है। यहां दिक्कत भाषा की ज्यादा थी। मैं हिंदी भाषी हूं और पंजाब में हिंदी भाषी होने का मोटा-मोटी मतलब बिहारी या पूरबिये होने से है।

पंजाब में अगर आप बिहारी या पूरबिये हैं तो भैये हैं। भैये मतलब वे लोग जो रोजी-रोटी की तलाश में बिहार से पंजाब जाते हैं। कमाते हैं, बिहार लौटते हैं, फिर जाते हैं। ..तो पंजाब मेरे रूप में एक भैया और बढ़ गया। वैसे हमारे साथ कुछ और लोग भी थे। पंजाब (जालंधर) जाने के बाद कुछ दिनों तक रहने की व्यवस्था थी। उसके बाद स्वाभाविक तौर पर मकान ढूंढने का सवाल सामने आया। दो चार लोग मिलकर मकान खोजने जाते थे। अक्सर किसी मोहल्ले की गलियों में दुकान वगैरह वालों से पूछकर मकान खोजने का काम हमलोग कर रहे थे। मकान खोजने के दौरान एक वाकये का जिक्र मैं करना चाहूंगा, जो आज भी अक्सर मुझे याद आता है।

एक किराने की दुकान वाले से हमने मकान के बारे में पूछा तो उसने कहा-हां मकान खाली है। मैंने कहा-दिखवा सकते हो। उसने कहा-चलो। पास की ही गली में लेकर गया। वहां एक मकान के अंदर लेकर गया। एक कमरा दिखाया। बोला-देखो इसमें आठ-दस आदमी आराम से रह सकते हो। सात सौ रुपये किराया दे देना। सौ-सौ रुपये भी नहीं पड़ेंगे। कमरा आम कमरों के आधा भी नहीं था। वह भी टेढ़ा-मेढ़ा। कोई कोना पूरा नहीं था। हमने कहा-यार यह क्या घर हुआ। इसमें कोई एक आदमी भी कैसे रह सकता है। और तुम सात-आठ लोगों की रहने की बात कर रहे हो। हम चार-पांच लोग एक मकान में रहना चाहते हैं। लेकिन वह घर की तरह हो। कमरा नहीं, फ्लैट हो। चकराने की बारी उसकी थी। उसने कहा-फ्लैट लोग, पता है, उसमें दो हजार रुपये लगते हैं। उसके इस चकराने पर हम भी चकराए, हमने कहा-हां, दो हजार तो लगेंगे ही, क्यों नहीं लगेंगे। (उस समय उस इलाके में दो हजार तक में ठीक-ठाक फ्लैट मिल जाता था।)

उसकी हैरानी अब भी खत्म नहीं हुई थी। वह अब भी पूछ रहा था, दो हजार रुपये तुम चार लोग दे पाओगे? तब तक हमलोगों की समझ में बात आ चुकी थी। वह वहां काम करने वाले बिहार-यूपी के मजदूरों या रिक्शा चालकों से अलग करके हमलोगों को देख ही नहीं पा रहा था। दरअसल, हिंदी, वह भी बिहारी हिंदी केवल बिहार, यूपी के ही लोग बोलते थे। बाद में जब हम लोगों ने उसे भरोसा दिलाया कि हमारी तनख्वाह इतनी है कि हम पांच सौ या हजार रुपये किराये पर खचॆ कर सकें तो वह अच्छे मकान दिलाने को राजी हो गया।

बाद में हमलोगों को उसी ने एक चार कमरों का मकान दिलवाया। किराया था तीन हजार रुपये। इस मकान में हम पांच लोग रहते थे। इसके बाद हमलोग किराना भी उसीसे खरीदने लगे। किराने की हमारी जरूरतें और खचॆ करने की हमारी छमता देखकर ही उसे पूरी तसल्ली हो पाई। उसके बाद जब तक रहे, उस किराने वाले से हम सबकी खूब निभी। किराने वाली वो गली और वो किराना वाला, दोनों की याद आती है।
-जारी

3 comments:

  1. बधाई !
    आप का काम तो उच्चकोटि का है ही,संभावनायें असीम हैं।

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  2. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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