Wednesday, July 22, 2009

देवघर की यात्रा ट्रेन की छत पर



अव्वल तो कोई इस बात की परवाह करता ही नहीं होगा कि इस ब्लॉग पर मैं क्या लिखता हूं और कैसा लिखता हूं। ..फिर भी कोई मुझसे यह उम्मीद न करें कि मैं सब तरतीब से लिखूंगा। जैसे पहले वाली सामग्री में मैंने जारी लिखा तो जरूरी नहीं कि अगली पोस्ट वहीं से शुरू करूं। वहां से तो मैं तब ही शुरू करूंगा जब मेरी मरजी होगी। इस पूरी भूमिका का सिफॆ इतना मतलब समझें कि जहां मैंने पिछली बार खतम किया था, वहां से शुरू नहीं कर रहा हूं। अतीत के पुराने पन्नों को टटोलते वक्त एक नए पन्ने पर जाकर ठहरा। उसे ही यहां पेस्ट कर रहा हूं।



मेरा भी मानना है कि धमॆ के प्रति लोगों की आस्था घटती जा रही है। धमॆस्थलों पर मची लूट खसोट भी इस मानने को मजबूत करने का ही काम करता है। एक बात और है कि किसी विशेष धामिॆक स्थल के प्रति जितनी श्रद्धा दूरदराज के लोगों की होती है, वैसी ही श्रद्धा आसपास के लोगों नहीं होती। यानी कम होती है। ऐसा मेरा मानना है। लेकिन मेरी इस धारणा और ऐसी मान्यता से अब भी एक घटना अक्सर लड़ती है। शायद 1987 की बात है। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ देवघर जा रहा था। देवघर जाने के लिए सुल्तानपुर तक हमें ट्रेन से जाना था। हमें जिस ट्रेन से जाना था उसमें वाकई तिल रखने की जगह नहीं थी। अंदर तो घुसा ही नहीं जा सकता था। दूसरी बात यह कि उस ट्रेन की छत पर पहले से ढेर सारे लोग बैठे थे। इन दोनों बातों ने हमलोगों को भी इस बात के लिए प्रेरित (इसे उकसाया ही पढ़ें) किया कि हम ट्रेन की छत पर बैठकर ही सुल्तानपुर तक जाएं। ट्रेन से इतनी लंबी दूरी तय करने का यह पहला मौका था। अकेले (बिना गारजियन के) भी इतनी दूर पहली बार ही जा रहा था। ये दोनों बातें, मेरी उम्र और हमउम्र दोस्तों का साथ, इस बात के लिए उचित वजह थी कि मैं सही-गलत का फैसला न करूं। लब्बोलुआब यह कि हम सारे दोस्त भी ट्रेन की छत पर बैठ गए। चढ़ तो गए पर बैठने में डर लगने लगा। ट्रेन खुली तो डर और बढ़ा। पर यकीन मानिए ट्रेन की पूरी छत का भी कोई हिस्सा खाली नहीं था। इस बात ने धीरे-धीरे डर को खत्म करना शुरू किया। जो होगा, सो होगा। अकेले मेरे साथ थोड़े ही होगा। इस सोच ने डर को पूरी तरह खत्म कर दिया। बरसात का मौसम। बादल और ठंडी हवाएं। पहली बार पैदल देवघर जाने का जोश। खुदमुख्तार होने का गवॆ। सच मानिए, बहुत मजा आ रहा था। इस मजे के बीच में डर ने फिर लौटने का साहस नहीं किया। हौसला इस कदर बढ़ा कि शाम होते-होते बैठने की बजाय छत पर खड़े हो गए। हवाएं तेज चल रही थीं। लेकिन आसपास इतने सारे लोग थे कि गिरने का डर नहीं था। देवघर जाते वक्त अपने शहर से हमने भी गेरुआ वस्त्र खरीदा था। साथ में तौलिया (गमछा) भी। उसी तौलिये में हमने घर से मिले रुपये बांध लिए थे, सभी। उन्हीं रुपयों से देवघर जाना, वहां रुकना, वहां से आना और खाना-पीना था। उस वक्त ट्रेन हरे-भरे खेतों के बगल से गुजर रही थी। हर तरफ हरियाली ही हरियाली। खड़े होने के बाद शाम की हवाएं इतनी अच्छी लग रही थी कि बस क्या बताएं। मजा इस कदर बढ़ा कि मैं अपने गांव के अंदाज में तौलिया दोनों हाथों से लहराकर गाने ही लगा। कुछ बोल बम, भोले का सहारा है टाइप ही। छत पर बैठे आसपास के लोग और मित्र भी साथ दे रहे थे।...अचानक मेरा मजा काफूर हो गया। मैं चिंताओं में घिर गया। हुआ यूं कि तौलिया मेरे हाथ से छूटकर उड़ गया। ट्रेन काफी रफ्तार से जा रही थी। लोगों ने तौलिये को पकड़ने की कोशिश भी की। किसी के पकड़ में नहीं आया। मेरे तो हवाश गुम। अब जाऊंगा कैसे, वहां रहूंगा कैसे-खाऊंगा कैसे, कई चिंताएं थीं। दोस्तों ने तसल्ली दी। हमलोगों के पास पैसे हैं, चिंता मत करो। पर यह तो लग ही रहा था, पहली धामिॆक यात्रा भी दूसरों के पैसों से पूरा करना पड़ेगा, ओह। हमारी टीम में मेरा चचेरा भाई भी। मुझसे उम्र में दो साल बड़ा। उसने कहा, चिंता करने की तो सचमुच कोई बात नहीं है। जितने पैसे मेरे पास हैं, उतने से ही दोनों का काम चल जाएगा। लेकिन अपना पैसा अपना ही होता है। मेरी राय मानो तो अगले स्टेशन पर जैसे ही ट्रेन रुके हमलोग तौलिये को खोजने चलते हैं। शाम, रात को बस छूने ही जा रही थी। लोगों ने कहा, अब कहां मिलेगा तौलिया? उसमें पैसे भी हैं, कोई उठाकर ले गया होगा। लेकिन वह नहीं माना सुल्तानपुर से पहले जो भी स्टेशन था (अब याद नहीं) वहां उसने मुझे उतार लिया। वहां से हम दोनों पीछे की ओर दौड़ पड़े पटरियों के बगल से। रास्ता और आसपास का नजारा दिखना बस बंद ही होने वाला था। दौड़ते हुए आधा घंटा हो गया था। जिस तरफ हम लोग दौड़ रहे थे, उसके दूसरी तरफ से अचानक आवाज आई। ओ, भाई साहब कहां जा रहे हैं। मैं दौड़ता ही रहा। अपने चचेरे भाई से बुदबुदाकर कहा, कहां जा रहलियो ह, ओकरा से तोरा की मतलब। (मगही का हिंदी अनुवाद-कहां जा रहे हैं, उससे तुम्हें क्या मतलब)। पर अपने चचेरे भाई की समझदारी पर मुझे उस दिन से जो गवॆ हुआ, वह आज तक नहीं गया। वह रुक गया। रुककर मुझे भी उनलोगों के पास ले गया। उन्हें पूरी बात बताई। ..बताया कि इसीलिए दौड़े जा रहे हैं। अचानक उन चार-पांच लोगों में से एक ने कहा कि, इसीलिए हमने भी आपको बुलाया है। हमें लग रहा था कि यह तौलिया आप ही का है। देखिए यही है न। तार में अटक गया था। ढेला मार-मार के उतारे हैं। उतारने पर पैसे मिले। हमलोग तो समझ ही गए कि किसी बम (देवघर जाने वाला यात्री) का ट्रेन की छत से उड़कर गया है। कितने पैसे थे? पूछने पर हमने बताया। उसने कहा हां, इतना ही है। आप ही का है तौलिया। ..अच्छा हुआ आप लोग आ गए। नहीं तो हमलोगों में से किसी एक को देवघर जाना पड़ता। देवघर जाने के उद्देश्य वाला यह पैसा हम किसी और काम में खचॆ भी तो नहीं कर सकते थे। आपने परेशानी से बचा लिया। ये विचार या कहें उद् गार एक व्यक्ति के नहीं, उन पांचों के थे। हमने उन्हें धन्यवाद दिया और वहां से जीप पकड़कर सुल्तानपुर पहुंचे। जीप कहां मिलेगी, यह भी उन्होंने ही बताया। अपने बाकी दोस्तों से हमदोनों देवघर के रास्ते में ही मिल गए। ४० कोस का पैदल रास्ता। रास्ते में मिलने पर ट्रेन की छत वाला हर परिचित यह जरूर पूछता..तौलिया मिला या नहीं। ..और पूरी कहानी सुनकर किसी को आश्चयॆ नहीं होता।

Thursday, July 16, 2009

पंजाब के वो दिन

हमारी जिंदगी के कुछ वषॆ पंजाब में बीते। जैसा कि अमूमन होता है, नई जगह में थोड़ी दिक्कतें आती हैं। उसमें भी अगर भाषा और संस्कृति का फकॆ हो तो दिक्कत थोड़ी बड़ी हो जाती है। यहां दिक्कत भाषा की ज्यादा थी। मैं हिंदी भाषी हूं और पंजाब में हिंदी भाषी होने का मोटा-मोटी मतलब बिहारी या पूरबिये होने से है।

पंजाब में अगर आप बिहारी या पूरबिये हैं तो भैये हैं। भैये मतलब वे लोग जो रोजी-रोटी की तलाश में बिहार से पंजाब जाते हैं। कमाते हैं, बिहार लौटते हैं, फिर जाते हैं। ..तो पंजाब मेरे रूप में एक भैया और बढ़ गया। वैसे हमारे साथ कुछ और लोग भी थे। पंजाब (जालंधर) जाने के बाद कुछ दिनों तक रहने की व्यवस्था थी। उसके बाद स्वाभाविक तौर पर मकान ढूंढने का सवाल सामने आया। दो चार लोग मिलकर मकान खोजने जाते थे। अक्सर किसी मोहल्ले की गलियों में दुकान वगैरह वालों से पूछकर मकान खोजने का काम हमलोग कर रहे थे। मकान खोजने के दौरान एक वाकये का जिक्र मैं करना चाहूंगा, जो आज भी अक्सर मुझे याद आता है।

एक किराने की दुकान वाले से हमने मकान के बारे में पूछा तो उसने कहा-हां मकान खाली है। मैंने कहा-दिखवा सकते हो। उसने कहा-चलो। पास की ही गली में लेकर गया। वहां एक मकान के अंदर लेकर गया। एक कमरा दिखाया। बोला-देखो इसमें आठ-दस आदमी आराम से रह सकते हो। सात सौ रुपये किराया दे देना। सौ-सौ रुपये भी नहीं पड़ेंगे। कमरा आम कमरों के आधा भी नहीं था। वह भी टेढ़ा-मेढ़ा। कोई कोना पूरा नहीं था। हमने कहा-यार यह क्या घर हुआ। इसमें कोई एक आदमी भी कैसे रह सकता है। और तुम सात-आठ लोगों की रहने की बात कर रहे हो। हम चार-पांच लोग एक मकान में रहना चाहते हैं। लेकिन वह घर की तरह हो। कमरा नहीं, फ्लैट हो। चकराने की बारी उसकी थी। उसने कहा-फ्लैट लोग, पता है, उसमें दो हजार रुपये लगते हैं। उसके इस चकराने पर हम भी चकराए, हमने कहा-हां, दो हजार तो लगेंगे ही, क्यों नहीं लगेंगे। (उस समय उस इलाके में दो हजार तक में ठीक-ठाक फ्लैट मिल जाता था।)

उसकी हैरानी अब भी खत्म नहीं हुई थी। वह अब भी पूछ रहा था, दो हजार रुपये तुम चार लोग दे पाओगे? तब तक हमलोगों की समझ में बात आ चुकी थी। वह वहां काम करने वाले बिहार-यूपी के मजदूरों या रिक्शा चालकों से अलग करके हमलोगों को देख ही नहीं पा रहा था। दरअसल, हिंदी, वह भी बिहारी हिंदी केवल बिहार, यूपी के ही लोग बोलते थे। बाद में जब हम लोगों ने उसे भरोसा दिलाया कि हमारी तनख्वाह इतनी है कि हम पांच सौ या हजार रुपये किराये पर खचॆ कर सकें तो वह अच्छे मकान दिलाने को राजी हो गया।

बाद में हमलोगों को उसी ने एक चार कमरों का मकान दिलवाया। किराया था तीन हजार रुपये। इस मकान में हम पांच लोग रहते थे। इसके बाद हमलोग किराना भी उसीसे खरीदने लगे। किराने की हमारी जरूरतें और खचॆ करने की हमारी छमता देखकर ही उसे पूरी तसल्ली हो पाई। उसके बाद जब तक रहे, उस किराने वाले से हम सबकी खूब निभी। किराने वाली वो गली और वो किराना वाला, दोनों की याद आती है।
-जारी